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शनिवार, 15 अगस्त 2009

संबोधन से उठा सवाल - शासन व्यवस्था प्रभावी, पारदर्शी और जवाबदेह हो।

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कल्याणकारी योजनाओं को भ्रष्टाचार की भेंट नहीं चढ़ने देने, सांसदों और विधायकों को चुनाव के बाद भी जनता की सुध लेने तथा प्रशासकों को ईमानदारी के साथ जनता की आवश्यकताओं के प्रति सचेत रहने की जो नसीहत दी उसके संदर्भ में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर ऐसी नसीहत की आवश्यकता क्यों पड़ रही है? हमारे जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों को तो वे सारे कार्य स्वत: और सहर्ष करने चाहिए जिनका उल्लेख राष्ट्रपति ने किया। यह संभवत: पहली बार है जब राष्ट्रपति की ओर से दिया गया राष्ट्र के नाम संबोधन आम लोगों से अधिक उन खास लोगों पर केंद्रित है जो या तो नीति निर्माता हैं या फिर उन पर अमल करने वाले। वैसे तो यह सामान्य सी बात है कि सांसद और विधायक उन लोगों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करें जिन्होंने उन्हें चुना है, लेकिन क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि यह बात राष्ट्रपति को एक तरह से खुद सांसदों एवं विधायकों से कहनी पड़ रही है? इससे तो यही ध्वनित होता है कि हमारे जनप्रतिनिधि अपने मूल दायित्वों की अनदेखी कर रहे हैं। यह सच भी है। इसी तरह यह भी एक तथ्य है कि जनप्रतिनिधियों जैसा हाल नौकरशाहों का भी है और शायद इसीलिए राष्ट्रपति ने कहा कि उनका कार्य जनसेवा है और निष्ठा, समर्पण, ईमानदारी उनके कार्य की पहचान होनी चाहिए। वर्तमान में तो इसके उलट स्थिति है। निष्ठा, समर्पण और ईमानदारी प्रभावी होती तो राष्ट्रपति को भ्रष्टाचार का उल्लेख करते हुए यह नहीं कहना पड़ता कि जब कल्याणकारी योजनाओं के लिए रखा गया धन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है तो इससे आक्रोश होता है।

राष्ट्रपति के राष्ट्र के नाम संबोधन से यह स्पष्ट है कि वह यह महसूस कर रही हैं कि न तो नेता अपने दायित्वों के प्रति सचेत हैं और न ही नौकरशाह। चूंकि राष्ट्र भी ऐसा ही महसूस कर रहा है इसलिए नेताओं और नौकरशाहों के समक्ष इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं कि वे अपने दायित्वों के प्रति चेतें। वे इसी तरह अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़कर नहीं रह सकते, क्योंकि आम जनता स्थितियों को अब कहीं अधिक गहराई से समझ रही है। यह अच्छा हुआ कि राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में यह स्पष्ट किया कि आम लोगों को निर्धारित सुविधाएं और सहूलियतें सुचारु रूप से तभी मिल पाएंगी जब शासन व्यवस्था प्रभावी, पारदर्शी और जवाबदेह हो। इसका सीधा अर्थ है कि वर्तमान में ऐसा नहीं है। नि:संदेह इसके लिए शीर्ष पर बैठे लोग उत्तरदायी हैं, जो सरकारी कामकाज को पारदर्शिता और जवाबदेही के दायरे में लाने से इनकार कर रहे हैं। जब स्वयं राष्ट्रपति शासन में सुधार की जरूरत बता रही हैं तब फिर इसका कोई औचित्य नहीं कि सरकारी कामकाज का रंग-ढंग न बदले। राष्ट्रपति ने देश के उत्थान के संदर्भ में जो अपेक्षा जताई वह तभी पूरी हो सकती है जब हमारे शासक और उनके काम करने का तौर-तरीका बदले। नि:संदेह इस सबके साथ आम जनता को भी खुद को राष्ट्र की एक जिम्मेदार इकाई के रूप में बदलना होगा। सच तो यह है कि यदि आम जनता के स्तर पर बदलाव की शुरुआत हो तो शासक वर्ग को ऐसा करने के लिए आसानी से बाध्य किया जा सकता है।

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